"पार्थ और अभिलाषा"
पार्थ : हे अभिलाषा ,क्यूँ आ जाती हो तुम बार बार
जानती हो की मान चुका हूँ मैं हार
फिर भी आ जाती हो बार बार ||
समय के थपेड़ों से हो चुका हूँ मैं त्रस्त
क्यूँ करती हो मुझको आश्वस्त |
है और नही शक्ति शेष मुझमें,
और प्रारब्ध से कर ली है संधि मैने ||
अभिलाषा : हे पार्थ, समय ने निभाया अपना धर्म ,पर तुमने नही
है कौन वो विरला ,समय ने जिसको परखा नही ||
निरंतर प्रयास ही सफलता की कुंजी है
और परिश्रम ही तो कर्मनायकों की पूंजी है ||
पत्थर भी चोट खाकर ही कलाकृति बनता है
और सोना भी आग में तापकर कुंदन बनता है ||
अतः हे पार्थ , यह एक शाश्वत सत्य है
तुम्हारा कर्मपथ ही तुम्हारा धर्मपथ है ||
बस इसी बात का आभास कराने आती हूँ,
तुम हो एक पार्थ , तुम्हें पार्थ बनाने आती हूँ
तुम्हें पार्थ बनाने आती हूँ ||
पार्थ : हे अभिलाषा ,क्यूँ आ जाती हो तुम बार बार
जानती हो की मान चुका हूँ मैं हार
फिर भी आ जाती हो बार बार ||
समय के थपेड़ों से हो चुका हूँ मैं त्रस्त
क्यूँ करती हो मुझको आश्वस्त |
है और नही शक्ति शेष मुझमें,
और प्रारब्ध से कर ली है संधि मैने ||
अभिलाषा : हे पार्थ, समय ने निभाया अपना धर्म ,पर तुमने नही
है कौन वो विरला ,समय ने जिसको परखा नही ||
निरंतर प्रयास ही सफलता की कुंजी है
और परिश्रम ही तो कर्मनायकों की पूंजी है ||
पत्थर भी चोट खाकर ही कलाकृति बनता है
और सोना भी आग में तापकर कुंदन बनता है ||
अतः हे पार्थ , यह एक शाश्वत सत्य है
तुम्हारा कर्मपथ ही तुम्हारा धर्मपथ है ||
बस इसी बात का आभास कराने आती हूँ,
तुम हो एक पार्थ , तुम्हें पार्थ बनाने आती हूँ
तुम्हें पार्थ बनाने आती हूँ ||
Very nice .. really liked it..
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ReplyDeleteBohot khoob :)
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