Sunday, July 17, 2016

" क्षितिज मुट्ठी में "

मेरे द्वारा एक रचित कविता :

        " क्षितिज मुट्ठी में "

बस पूछ बैठा यूहि मैं अपने मन से
क्या क्षितिज होते है आगे आसमाँ से,
मन सकपकाया ,फिर बोला
आसमाँ से आगे शून्यता है,क्षितिज नही ||


लेकिन ए मन, है तो ये सुनी सुनाई बात,
चल चलते है और करते है प्रकृति से साक्षात्कार |

हिम्मत,मेहनत और अब था मन का साथ,
चलते चलते पहुँच ही गये आसमाँ से पार |
पाए वहाँ नये क्षितिज और नये जहाँ,
फिर किया मैने अपने मन से सामना |

ए मन कहता था तू ,होगा शून्य यहाँ,
देख यह शून्‍य है कितनी असीमितताओं से भरा हुआ|

तब मन मुस्कुराया ,और बोला
 रे पगले,तू और मैं अलग थोड़े ही हैं |
कभी मैं तुझे समझाता हूँ ,कभी तू मुझे,
तू मेरा संबल है और मैं तेरा

बस एक साम्जन्स्य चाहिए तुझमें और मुझमें
फिर हर क्षितिज है हमारी मुट्ठी में ,
हर क्षितिज है हमारी मुट्ठी में ||